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सात साल की बच्ची बनी प्रेरणा, किया सर्वस्व समर्पण

सात साल की बच्ची बनी प्रेरणा, किया सर्वस्व समर्पण


चीन के वुहान शहर से आग पकड़ी कोरोना महामारी विश्व के तमाम देशों में फैल चुकी है। कुछ गिने चुने देश छोड़कर सारे देशों में हजारों लोग इसके शिकार हुए और कई की मौतें भी हो चुकी हैं। हमारे देश को सरकार हर संभव प्रयास करके इस महामारी से निपटने का उपाय कर रही है। वहीं कुछ ऐसे उदाहरण हमारे लिए सकारात्मक संदेश देते हैं और हमारी प्रेरणा बन जाते हैं। ये उदाहरण बताते हैं कि देश के लिए कुछ करने का मतलब क्या होता है? सहायता सिर्फ पैसों से नहीं होती बल्कि दिल से होती है सर्वस्व समर्पण से होती है।
मुझे उर्दू के मशहूर शायर वसीम बरेलवी की वो पंक्तियाँ याद आती हैं-
हम ही बच्चों को उनके फैसले करने नहीं देते।"
जय हिंद, जय हिंदी

यह कहानी है राजस्थान के भीलवाड़ा में जन्मी 7 साल की बच्ची की। जहाँ वह बच्ची अपने इलाके के विधायक के साथ मिलकर कलेक्टर के पास गई और अपनी गुल्लक फोड़कर उसके सारे पैसे जिसमें कुल 8,300 रुपये थे, मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा कर आई।

ये एक तमाचा है उनके लिए भी जिनके पास अरबों की संपत्ति होने पर भी देश में आये संकट पर एक रुपये भी राहत कोष में नहीं दे रहे हैं। उस बच्ची के संस्कार किसी स्कूल में नहीं सिखाये बल्कि ये संस्कार घर के बड़े बुजुर्गों से मिलते हैं। कहते हैं कि पेड़ बूढ़ा हो जाये तो उसे काटिए मत, वो फल न दे पाए मगर छांव जरूर देगा यही काम घर के बुजुर्ग करते हैं।

ये उस बच्ची के हाथों में रखी महज एक गुल्लक नहीं थी, बल्कि अपने देश के लिए उसका सर्वश्व समर्पण था। उसके छोटे-मोटे सपने थे जो बच्चे अपने बचपन में देखते हैं। जो हमने और आपने भी देखे हैं।

सवाल ये उठता है कि कहाँ से आये ये पैसे? जिसने विप्रो के ओनर अजीज जी के द्वारा दिये 52 हज़ार करोड़  और टाटा कंपनी के 1500 करोड़ को पीछे छोड़ दिया। उसके पास ये चंद रुपये कहीं और से नहीं बल्कि हमारे बचपन की तरह जब हम बच्चे थे तो परिवार के बड़े लोग दादा,चाचा, पापा से एक एक रुपये लेकर अपनी छोटी से गुल्लक में उन रुपयों को जोड़ते थे कि कभी गुल्लक फोड़कर वीडियो गेम खरीदेंगे, खिलौने खरीदेंगे।

दूसरा सवाल ये है कि ये सोच, ये विचार उसके जहन में आये कैसे? यही विचार की पैसे तो बाद में जोड़ लेंगे मागे जानें चली गई तो वापिस नहीं आएगी। 7 साल की बच्ची को ये बात समझ आ गई कि पैसा महत्वपूर्ण है मगर जान से बढ़कर नहीं।

"हम ही उनसे उम्मीदें आसमाँ छूने की करते हैं।

फैसला किसका था इससे फर्क नहीं पड़ता मगर जो संस्कार इस नन्ही उम्र में उस बच्ची में आये हैं कीमत उनकी है। उस बच्ची ने बता दिया कि देश को ऊँचाई पर पैसा नहीं, एक सच्ची नियत और समर्पण पहुँचाता है।

बचपन में हम सबने किसी न किसी की ज़बान से एक बच्चे की कहानी सुनी होगी। वो बच्चा खिलौने की दुकान पर जाता है और  दुकानदार से पूछता है ये चकरी कितने की है? दुकानदार पूछता है तुम्हारे पास कितने रुपये हैं? वो बच्चा अपनी जेबें टटोलता है और 4 रुपये दुकानदार के सामने रख देता है। दुकानदार उस बच्चे को चकरी दे देता है। बच्चा खुश होकर अंकल को थैंक्यू बोलकर चला जाता है। पास खड़ा एक व्यक्ति दुकानदार से कहता है कि ये चकरी तो 5 रुपये की थी मगर आपने उसे चार रुपये में दे दी और मुझे पाँच रुपये के हिसाब से पांच चकरी 25 रुपये में दी ऐसा क्यों? दुकानदार मुस्कुराकर कहता है कि बात चार रुपये की नहीं है भाई, बल्कि उस सर्वस्य समर्पण की है जो उस बच्चे ने किया। उसके पास जितने भी रुपये थे सारे के सारे दे दिए बिना हिचकिचाएं.

मोरल यही है कि आज देश के लिए भी हमारा ऐसा ही समर्पण जरूरी है। हमसे जो बन सकता है हमारे देश को इस महामारी से बचाने के लिए हमें करना चाहिए। सरकार के हर आदेश को सख्ती से पालन करना चाहिए। भले पैसे न दे पाए मगर देश के लिए लॉकडाउन का पालन तो कर ही सकते हैं। हमारी यही एक पहल, जिम्मेदारी हमारे परिवार को ही नहीं बल्कि पूरे देश को विश्व मे गर्व महसूस कराएगी।

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