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हम किस राह पर हैं, क्या सुलह बाक़ी नहीं है?


 जैन समाज अपने संस्कार और अपनी संस्कृति के लिए वर्षों से जानी जाती है। आज जैन समाज ने अलग ही रुख मोड़ लिया है। आपसी विवाद पहली बार नहीं है लेकिन अब जो होने वाला है वो बहुत ही भयाभय है। पर बात ये है कि ये झगड़े रोके नहीं जा सकते या सुलह की बात कोई नहीं रहा बस सबको यलगार की पड़ी है?

आज भी झगड़े रोके जा सकते हैं जब जैनसमाज के ज्ञानीजन इस विषय में गंभीरता से विचार करके इसकी समाप्ति का निर्णय ले सकते हैं।

जब ये विवाद होते हैं तो लोग अपने आप अपना समय इन सब चीजों में देने लगते हैं। अब यह मामले राजनैतिक स्तर पर आने लगे हैं जिसमें राजनैतिक लोग भी अपना वोटबैंक और बहुमत देखकर समाज के साथ हो रहे हैं। पर इन लोगों का कोई भरोसा नहीं आज आपके साथ हैं कल किसी और के साथ हो सकते हैं।

हम सब लोग शायद ये समझ ही नहीं पा रहे हैं या अब हम समझना ही नहीं चाहते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों ने हमें युद्ध के लिए तैयार कर लिया और हम अपना विवेक खोकर उसी चाल में चल दिये।

वर्तमान समय में कोरोना महामारी का ऐसा दौर चल रहा है जिसमें कितने समाज के लोगों की जॉब हाथ से जा चुकी हैं, व्यापार ठप्प पड़ा है। हमअपने परिवार को सम्हाल नहीं सकतेफिर भी हमें उन झगड़ो का बोझ उठाना है।

झगड़ों का नेतृत्व वो करता है जो सम्पन्न होता और उन झगड़ों में पिसता कौन है? वही समाज का सामान्य वर्ग जो बुद्धिजीवियों के बहकावें में आकर इन आंदोलनों को अपने जीवन से भी जरूरी बना लेते हैं। अपना स्वविवेक मारके सिर्फ इसी भेड़चाल में चले जाते हैं। और अपने संस्कार नहीं देखेंगे लेकिन जहां धर्म के नाम पर मर मिटने की बात आएगी तो आपस में ही लड़ मारेंगें बिना सोचे समझे?

हम किसी पक्ष या विपक्ष की छोड़ते हैं। क्योंकि ये चीजें कभी नहीं रुकने वाली पर हम उस "जैन" समाज को विश्वभर में सम्मान दिलाने की तो कोशिश कर सकते हैं उसकी उन्नति में तो काम कर सकते हैं।किसी शायर ने बहुत बढ़िया बात कही है कि-

हम उन्हें अपना बनाये किस तरह।

वो हमें अपना समझते ही नहीं।

एक पक्ष कहता है वो हमें अपना नहीं समझता, एक पक्ष कहता है हम उसे क्यों अपना बनाये, तो इसी झगड़े में हमें जो सत्य समझना था उसका तो हमने हर तरीक़े से लोप कर दिया। "हम क्यों करें पहले हमें वो अपना तो समझें" बस यही बात हमारे जैन समाज को अंदर से तोड़ती जाएगी समाज के लोगों में इस कोरोना संकट में आजीविका की व्यवस्था नहीं हो पा रही पर इसके संबंध में कोई कुछ नहीं करना चाहता।हम जैनत्व के सिद्धान्तों से बेखबर रहेंगे लेकिन जब झगड़े की बात आएगी तो सबसे पहली लाइन में खड़े हम ही मिलेंगे क्यों?

क्या हमारी प्रकृति बदलती जा रही है? या हम अपने संस्कार खो चुके हैं। आचार्यदेव ने प्रवचनसार में कहा है-

तत्वार्थ को जो जानते, प्रत्यक्ष या जिन शास्त्र से।

द्रग-मोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए।

शायद अब भी हम इस गाथा का अर्थ समझें और स्वाध्याय के प्रति रुचि बढ़ाये तो सारे विवादों की सुलह संभव है।


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