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वेब सीरीज रिव्यु : खत्म होते-होते रुला देती है: गुल्लक-2


 

लाज़िम है कुछ फिल्में, कुछ वेब सीरीज हमें इतनी पसंद आती हैं कि हमेशा याद रह जाती हैं, याद रहने की वजह होती है फिल्म की स्क्रिप्ट और उसकी कहानी के किरदारों से जुड़ाव।
एक अलग सा जुड़ाव हो जाता है उसकी कहानी से क्योंकि वो हमें अपनी कहानी लगने लगती है।अपनी कहानी मतलब "मिडिल क्लास फैमिली" की कहानी। इसी प्लॉट पर खड़ी हुई मिडिल क्लास फैमिली के किस्सों को जोड़कर बनी "गुल्लक-2" ने हमें कहानी ख़त्म होते-होते रुला दिया। इस वेब सीरीज में मिडिल क्लास फैमिली की रियलिटी का दर्शन हुआ है और सच्ची कहानियाँ सीधे दिल में उतरती हैं। इन्हीं आस-पास के किस्सों को एक थाली में सजाकर हमें परोसा है इसके स्क्रिप्ट राइटर दुर्गेश भैया ने।
जब किस्सों को आम जनता रिलेट कर पाती है तब वो किस्से हिट हो जाते हैं।क्योंकि लोगों को लगता है कि यह तो मेरी कहानी चल रही है। कहानी में एक पिता है, जिसे फैमिली का बाप कहा जाता हैं। जो हमेशा अपने हर फैसले में बेबाक रहता है। मैंने भी अपने घर में या अपने आस-पास ऐसे लोग देखे हैं और उन्हें कहानी के किरदारों से मिलाया भी है।
एक जमाल खान जैसा बाप देखा है जिसने ईमानदारी की चरस फूँक रखी होती है और जो आपदा- विपदा के बाद "बापदा" का महत्त्व समय समय पर समझाता है।
एक गीतांजलि कुलकर्णी जैसी माँ देखी है जो घर की "डोमेस्टिक इंजीनियर" है और घर को कैसे संभालना है इसकी सारी जिम्मेदारी सम्हाल रखी है। मैं अच्छे से जानता हूँ एक पड़ोस वाली आंटी को जो आस-पड़ोस के तमाम किस्से लेकर अपनी सहेली के साथ बाँटने आ जाती हैं। एक बड़ा भाई वैभव राज गुप्ता जैसा भी होता है जो SSC की तैयारी कर रहा होता है क्योंकि उसकी मां को आस पड़ोस में बताना भी तो है की उनका लड़का क्या करता है।पर उससे SSCअटेम्प्ट हो नहीं हो रहा होता है इसलिए टिकने की कोशिश करता रहता है।और एक छोटा भाई हर्ष मायर जैसा जो थोड़ा कम अक्ल है, उसे चीजें थोड़ी कम और देर बाद समझ आती हैं पर जब कोई बड़ा काम करता है तो उसकी पूरी फैमिली प्राउड फील करती है।

कहानी एकदम  बेहतरीन लिखी गई है फिल्मांकन भी जबर्दस्त हुआ है। एक्टिंग बहुत अच्छी है।और इन किस्सों का हिट होना मुझे इसलिए भी वाजिब लगता है क्योंकि ये कोई आसमानी कहानी नहीं है, क्योंकि इसके राइटर जेके रॉलिंग नहीं दुर्गेश सिंह हैं। ये कहानी धरती पर बसे प्राणियों की है ना किसी काल्पनिक दुनिया की।

बीच-बीच में आईं कुछ पंच लाइन और उनको कहने का तरीका किस्सों की गुल्लक में एक अलग छाप छोड़ता है। कहानी जब शुरू होती है तो एक व्यकि मिश्रा जी के घर के बाहर "बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ" क पोस्टर चिपका रहा होता है तभी मिश्राइन घर के बाहर आकर उससे कहती हैं कि "कि हमारे घर में तो बेटी ही नहीं है" तो वो व्यक्ति कहता है कि "कोई बात नहीं बेटों को पढाईये, वैसे भी बेटों को पढ़ाने की आज ज्यादा जरूरत है" ऐसे कई सोशल मेसेज कहानी दे जाती है। इस तरह की वेब सीरीज उन लोगों के लिए तमाचा है जो ये सोचते हैं की कहानी को हिट कराना हो तो उसमें अश्लीलता डाल दो।
टीवीएफ़ की विशेषता है रही है कि वो कहानी सही से सही लाते हैं जैसे लास्ट ईयर की हिट वेब सीरीज "पंचायत" ही ले लो।
लास्ट में अमन मिश्रा का वो डायलॉग याद आता है जो आज सभी "प्रतिभाशाली बेरोजगारों" के लिए काबिल-ए-तारीफ डायलॉग  है कि "खाली जरूर हैं  पर बेकार नहीं है"
ये वेब सीरीज बार-बार हमें ये याद दिलाती है कि यह कोई कहानी नहीं किस्से हैं और कहानी खत्म हो जाती है लेकिन किस्से कभी खत्म नहीं होते वे अमर हैं। वक्त के साथ क़िस्से कहने वाली ज़बानें बदल जाती हैं पर क़िस्से अमर हैं।

सृजनकर्ता: श्रेयांस पांडे
निर्देशक: पलाश वासवानी
लेखक- दुर्गेश सिंह
कलाकार: जमील खान, गीतांजलि कुलकर्णी, वैभव राज गुप्ता, हर्ष मायर और सुनीता राजवर।



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